#मैं_ही_केवल_और_न_कोई..!!
#मैं_ही_केवल_और_न_कोई..!!
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मैं भी से मैं ही तक जाना, विध्वंसक संत्रास रहा यह।
मैं, मैं का कब दास हो गया, मुझे नहीं आभास रहा यह।।
अपने थे सब सङ्गी साथी,
शिष्ट पंथ का मैं अनुगामी।
दर्प बना जब सगा सहोदर,
यहीं अहं फिर बना सुनामी।
मैं, मैं में यूँ मग्न हो गया, लगा सभी कुछ खास रहा यह।
मैं, मैं का कब दास हो गया, मुझे नहीं आभास रहा यह।।
उदहारण सम्मुख थे मेरे,
कौरव कंस और अहिरावण।
मृत्यु भयातुर रहती जिससे,
ऐसा महावली वह रावण।
दृष्टिहीन मैं के मद होना, केवल अब इतिहास रहा यह।
मैं, मैं का कब दास हो गया, मुझे नहीं आभास रहा यह।।
प्रीति – रीति सम्मान सभी कुछ,
खो कर भी कुछ समझ न आया।
अहंभाव के चक्रव्यूह में,
उलझी जैसे निर्मल काया।
मैं ही केवल और न कोई, मन भीतर अहसास रहा यह।
मैं, मैं का कब दास हो गया मुझे नहीं आभास रहा यह।।
✍️ संजीव शुक्ल ‘सचिन’
मुसहरवा मंशानगर
पश्चिमी चम्पारण, बिहार