मैं
गुज़रती हूं अंधेरो से
लिये तक़दीर हाथों में
बिखरती हूं सिमटती हूं
लिये उम्मीद ख्वाबों में
दोष किसका है किसके
सर लगे बस वक्त ही जाने
जीतकर धुंध से बाज़ी
सूरज अब निगाहों में
उलझ बस खो गये हैं दो
सिरे जीवन के नादां मन
पकड़ ले इक सिरा यूं ही
तू है रब की पनाहों में