मैं हूँ न
तुम हो एक पूर्ण मानुषी,
स्वयं सिद्ध ,अधिकारिणी हो।
अकिंचन रहती ,मुस्कान लिए,
कभी हंसती कभी हंसाती हो,
कुसमित भाव व प्रेम लिए।
तुम वीरांगना हो,न दीन बनो,
मन की गति की स्वामिनी हो ,
फिर क्यों निर्भर रह जाती हो ।
तुम स्त्री,माँ और संगिनी बनी
इठलाने का सब हक लिए
राज करो ,हर रूप में
नहीं लाचार,तुम सशक्त नारी हो
जननी हर नर की ,गौरवमयी तुम
हर धर की खिलती फुलवारी हो ।।
arti gupta