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21 Mar 2020 · 1 min read

मैं ही फक़त बदनाम था

क्या पता मुझको सफ़र मुश्किल था या आसान था
बेखुदी में चल रहा था वक्त़ का फरमान था

रास्तों से बेवफाई कर सका न मैं कभी
इसलिए दी छोड़ मंजिल मैं फक़त नादान था

उसको देकर हर खुशी करता रहा मैं गुनाह ही
ग़म दिया उसने मुझे उसका बड़ा एहसान था

खो दिया उसने मुझे यूँ सज सँवरकर रात-दिन
भूल बैठी सादगी पर उसकी मैं कुरब़ान था

रूह वो छूती रही चुपचाप मैं चीखा किया
जुर्म था उसका भी पर मैं ही फक़त बदनाम था

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