मैं ही फक़त बदनाम था
क्या पता मुझको सफ़र मुश्किल था या आसान था
बेखुदी में चल रहा था वक्त़ का फरमान था
रास्तों से बेवफाई कर सका न मैं कभी
इसलिए दी छोड़ मंजिल मैं फक़त नादान था
उसको देकर हर खुशी करता रहा मैं गुनाह ही
ग़म दिया उसने मुझे उसका बड़ा एहसान था
खो दिया उसने मुझे यूँ सज सँवरकर रात-दिन
भूल बैठी सादगी पर उसकी मैं कुरब़ान था
रूह वो छूती रही चुपचाप मैं चीखा किया
जुर्म था उसका भी पर मैं ही फक़त बदनाम था