मैं ही जय हूँ मैं ही पराजय भी
कुछ अश्रु ढलक गए कृष्ण की आँखों से
कुछ सर झुका के बोले –
मैं ही अर्जुन था
धड़ाधड़ नरमुंडों का ढेर लगाए हुए ,
मैं ही भीष्म था शर शैय्या का कष्ट धारण किये ,
मैं ही युधिष्ठिर था
अश्वत्थामा हतो नरो वा कुञ्जरो वा
का उद्घोष करते हुए ,
मैं ही दुर्योधन था अंत में असहाय पड़े हुए ,
मैं ही अभिमन्यु था
चक्रव्यूह में अप्रतिम प्रदर्शन करते हुए ,
मैं ही लच्छमण ( दुर्योधन का पुत्र ) था
पांडवो समक्ष हुंकार भर प्राणों की आहुति देते हुए ,
मैं ही द्रौपदी का वस्त्र – हरण था ,
मैं ही कर्ण का उपहास था ,
मैं ही बर्बरीक का शीश था ,
मैं ही दुशाशन की लहूलुहान छाती था ,
मैं ही कुरुक्षेत्र की लाशों का भार लिए ,
मैं ही धर्मराज के मुकुट का अभिमान लिए ,
मैं ही जय था उस युद्ध की,
मैं ही पराजय भी था ,
स्वीकार करता हूँ
सारे अमृत का पान ,
तो स्वीकार कर रहा हलाहल विष का भी स्वाद ,
मैं ही कृष्ण हूँ
मैं ही दोनों ओर रहा ,
लो अब मैं सहता हूँ अपने हिस्से का आघात ,
लो ये शर बींध गया तलवों को
अब मृत्यु मुझको भी वरने आयी है ,
मैं ही विधि हूँ
मैं ही विधि का विधान
मैं ही जय था
तो मैं ही पराजय था |
द्वारा – नेहा ‘आज़ाद’