मैं स्वप्न हूँ तुम्हारा
मैं यकीं न करता, तुम द़गा क्या देते
मैं वफ़ा न करता, तुम ज़फ़ा क्या करते,
मैं बिछड़ा न होता, तुम मिला क्या लेते,
मैं दुआ न करता, तुम महका क्या करते।
मैं पनप रहा था, तुम गिरा रहे थे,
मैं सींच रहा था, तुम सुखा रहे थे,
मैं खिल रहा था, तुम तोड़ रहे थे,
मैं गंतव्य को था, तुम मोड़ रहे थे।
मैं देखता हूँ तुम्हें, तुम मुझे नहीं,
मैं पढ़ता हूँ तुम्हें, तुम मुझे नहीं,
मैं समझता हूँ तुम्हें, तुम मुझे नहीं,
मैं संवारता हूँ तुम्हें, तुम मुझे नहीं।
मैं अवलंब हूँ तुम्हारा, तुम मेरा नहीं,
मैं साथ हूँ तुम्हारे, तुम सहारा नहीं,
मैं साहिल हूँ तुम्हारा, तुम किनारा नहीं,
मैं स्वप्न हूँ तुम्हारा, तुम सवेरा नहीं।
-✍श्रीधर.