मैं सालिब हूँ तू आशूतोष क्यों है
चलो माना मुहब्बत भी नहीं है
नज़र लर्ज़ां ज़बां खामोश क्यों है
न आयेगा कोई मिलने मगर अब
मगर ये दिल हमा तनगोश क्यों है
कभी आवाज़ होती थी खुदा की
ज़बाने हल्क़ अब ख़ामोश क्यो है
मैं सच्चा था मुकदमा हार जाता
वो झूठा था मगर रोपोश क्यों है
अगर मज़हब मुहब्बत है हमारा
मैं सालिब हूँ तू आशूतोष क्यों है