मैं सहलूँगी (बेटी)
एक सुन्दर सी बेटी ,,
सुखे सागर, काला मन,
जब द्वार बेचारी खिली,,
जिनके अंतस में तो पौधा हों,,
फल-फुल साख का बेटा साधन हों।
लेकीन बेटी आयी थी ।
घर में वेदना छायी थी
उनके ह्रदय में छेदन है,,
काला मन मीठा भेदन हैं,
जिनका घर बेटी संकोचन है,,
बेटी इक काली रात को ढली हों,,
जैसे अमावश का ग्रहण बनी हों ,
आखिर बेटे की जगह क्यों खिली,,
मन में घृणा का प्रश्न था?
बेटी को देख कहते
हमें इसकी जरूरत क्या?
बेटा होता तो कमाता,
हमें रूपयों में हंसाता।
बेटी तो पराये घर जायेंगी?।
हमें भी लें डुबायेंगी।
गर बेटी ये सुनलें तो जिंदा पत्थर
बन जायें।
और वह जीना भी भुल जायें।
और वह उनकी शांति के लिए
ये कहें की..?
मैं नहीं घर से हिलुंगी,,
तुम कहोगे वैसे डोलुंगी।
तुम कहोंगे वैसे चलुंगी,
मैं स्वयं कष्ट सहलूँगी।।
मैं तुम्हारा बेटा बन के,
कमाई अर काम कर लुंगी।।
विवाहित बंधन
में तुम मत बांधना।
किसी संग सवार मत करना ,,
किसी कों मेरा प्रीत मत बनाना, ,
तुम्हें दहेज न देना पड़ेगा और
मैं बेटे जैसा कर्ज चुकाऊंगी।
मैं कमाई कर खिलाऊंगी,
मैं बेटे जैसा ख्याल रखूंगी
आपके बुढापे में सेवा करने
में कमी न रखूंगी।
केवल आप सभी
दु:खी मत होईये। क्योंकी?
हैं रणजीत मैं तो बेटी हूँ
कष्टों में भी रहकर जी लुंगी।
रणजीत सिंह “रणदेव” चारण
मुण्डकोशियां, राजसमन्द
7300174927