मैं संपूर्णा हूं
रचना नम्बर (23)
आत्म मंथन
मैं सम्पूर्णा हूँ
सृष्टि का शिलान्यास हूँ मैं
सन्मार्ग हूँ पूर्ण सृजन का
इकमात्र धुरी परिवार की
जीवन-चक्र चलाने वाली
ठोकरें खाती रही मैं सतत
शालिग्राम स्वरूप मैं बनी
हार बनी मैं हर ग्रीवा का
मुझे हार है पग-पग मिली
किश्त-किश्त में मिला है
हक़दार थी इक मुश्त की
दहलीज़ की हदों में रही
दर-दर की भटकन मिली
ग़र तुम प्रथम मनु थे बने
आदि श्रद्धा मैं भी तो थी
परछाइयाँ बिखरी हैं मेरी
कतार शुरू होती मुझीसे
बुन रहे फ़क़त ताने-बाने
स्वप्नदृष्टा तो बस मैं ही हूँ
कृतियाँ संसारी अद्भुत हैं
पर कलाकार मैं ही तो हूँ
तिनका-तिनका चुनकर
मकान को घर है बनाया
स्नेह की रेशमी डोर बुन
बांधे रखा रिश्ते-नातों को
हाँ आगाज़ तुमने किया
लेकिन जिंदगी के सपने
साकार तो मैंने ही किए
स्वयं छाया व आधार मैं
सरला मेहता
इंदौर
मौलिक