मैं शून्य हूँ!
मैं सोचता हूँ अक्सर कायनात में अंश मेरा,
सोचता हूँ क्या हूँ मैं!
मेरा क्या मैं हूँ किसका,
सोचता हूँ कौन हूँ मैं!
अरे ऐश्वर्य देवमूरत में हो या हो फिर मेरी रूह में,
तो सवाल दिल से उठा करता है शून्य क्या है।
खंगाला खुद को रूह की गहराई तक जा बैठ कर,
शून्य मिला और कुछ भी नहीं आगे उसके।
सोचता हूँ यह शून्य क्या है!
कौन हूँ मैं?
क्या हूँ मैं?
मैं ही वह शून्य हूँ।
तुम भी शून्य हो,
वह भी शून्य है या कह लो जग ही शून्य है।
ईश्वर शून्य है और शून्य ही ईश्वर है,
ईश्वर मैं हूँ, मैं ही राक्षस और मनुष्य हूँ।
हाँ!
मैं शून्य हूँ।
सब कुछ शून्य है और शून्य ही सब कुछ है।
कहता है कोई जब मुझसे तुम सफल हुए हो,
मैंने अभिमान से कहा मेरी सफलता भी शून्य है।
शून्य में समा जाना ही कायनात की रीत है,
शून्य से बड़ा कोई मकान नहीं और तलाशे जो ऐश्वर्य मन्दिर-मस्ज़िद में हाथ उठाए वह तो खुद ही शून्य है।
जी! शून्य ही ईश्वर है और वही है ऐश्वर्य भी।
मुझमें ही बसा है जड़ शून्य का,
तुम मेरे पूरक ही तो हो पगले,
क्यों भागते रहते थकते हो फ़िज़ूल की तलाशी में,
जो हासिल तुमको है वही तो शून्य है।
फिर से कहता हूँ मैं शून्य हूँ।
अरे मुझमें शून्य है, मैं ही तो शून्य हूँ।
समझो तुम या फ़क़ीरियत पहन लो,
अंत है कि मैं शून्य हूँ।
जय हिंद
जय मेधा
जय मेधावी भारत
©® सन्दर्भ मिश्र ‘फ़क़ीर’