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9 Sep 2019 · 1 min read

मैं शिकार हो गया (हास्य व्यंग्य )

बड़े जब कदम
जवानी की तरफ
हुंकार यूं
उठने लगी
मिल जाए
कोई हसीना
कट जाए
जिन्दगी आराम से

निकल पड़े
शिकार करने हम
फेंके जाल बहुत
फ॔स गयी
मछली एक
थी भोली भाली
नाजों में पली
पसंद आ गयी
पहली ही
निगाह में वो
रचाया ब्याह
धूमधाम से
समाये नहीं
खुशी से हम

अब का कहूँ
दास्ताँ अपनी
बरतन
हम मांझते हैं
कपड़े
हम धोते है
झाडू पौंछा
हम करते हैं
हुकुमत
चलती है
उसकी
बन गये
हम तो
गुलाम

सोचते हैं अब
क्यो निकले थे
शिकार को ?
अपने ही घर में
हो गये
शिकारी हम
थी अच्छी खासी
जिन्दगी
फ॔से गये
जाल में

स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल

Language: Hindi
346 Views
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