मैं विवेक शून्य हूँ
मैं विवेक शून्य हूँ
या मैं हूँ असमंजस में?
या बुद्धिहीन सोच मेरी।
जहाँ तक मैं जानता हूँ
जहाँ तक मैं सोच रहा।
मानस इस धरा पर सदियों से
इन निह्त्त्थे जीवों को नोच रहा।
मात सीता की, चाहत के लिए
रामचंद्र जी, ने भी मृग मारा था।
सुना, कारण लीला थी प्रभु की
दानव मारीच को तारा था।
मैं असमंजस में हूँ ।
जब न्याय- अन्याय ,पाप -पुण्य
एक-दूजे के विपरित है
श्रेणी कौन सी दूँ, मारिच बध को।
क्या लाभ मिला सीता – राम को।
इस जग में, मेरी समझ से
इन, निहत्त्थे जीवों को
मात्र खेलने का माना साधन है।
हम जैसी ही इनमे भी तो जान है।
भरकर अन्नानास में विस्फोटक
क्यों केरल में डाला है
कारण बेचारी अभागी हथिनी
मानस शौक से ही मारी है।
अपने प्रदेश में देवी देवता
हर कदम में बलि लेते है
मैं असमंजस में हूं, क्यों?
वो राजा, वो रक्षक
जिसे मानते हम सब है
विवेकहीन में हो जाता हूं
तर्कहीन हो जाता हूं
मैं विवेक शून्य हूं।
या मैं असमंजस में।।
जंहा तक मैं समझ रहा हूं
जंहा तक में समझ सका हूं
इन निहत्थे जीवों को
मात्र स्वार्थ का माना साधन है।
मैं विवेक शून्य हूं!
या मैं असमंजस में??
✍️ संजय कुमार संजू
शिमला, हिमाचल प्रदेश