मैं लेकर सब्र का इतिहास बैठा हूँ।
मैं लेकर हसरतों और सब्र का इतिहास बैठा हूँ।
मैं दरिया के किनारे लेके कब से प्यास बैठा हूँ।
मुझे कूवत मेरी मालूम है मुंसिफ मैं कैसा हूँ।
मगर मज़मा लगाकर मैं लिए इज़लास बैठा हूँ।
दुआ नापाक से लगता है वो भी भर गया पूरा।
मैं उसके दर पे कब से लेके इक अरदास बैठा हूँ।
जहां उम्मीद है सज़दे वहां मैं कर नहीं सकता।
मदद जो कर नहीं सकता मैं उसके पास बैठा हूँ।
मुझे मालूम है दीवानगी फिर भी नहीं जाती।
वो सौदागर है फिर भी लेके मैं अहसास बैठा हूँ।
हकीकत से मेरे अनजान हैं मैं ऐसी महफ़िल में।
बहुत ही आम हूँ लेकिन मैं बनकर ख़ास बैठा हूँ।
“नज़र” मैं ज़िन्दगी पर भी भरोसा करता हूँ लेकिन।
मुझे मालूम है ये मौत के ही पास बैठा हूँ।