मैं लिखता हूँ
दुनिया भर की बातें ख़ुद से करती है, मैं लिखता हूँ।
लम्हा-लम्हा रात अकेली ढलती है, मैं लिखता हूँ।।
तनहाई में टकराते हैं दर्दो-ग़म के पैमाने,
दिल के मयख़ाने में महफ़िल सजती है, मैं लिखता हूँ।
कोई आशिक़, कोई छलिया, कोई कहता है पागल,
दीवानों में बात मेरी ही चलती है, मैं लिखता हूँ।
प्रेमनगर की मलिका जब माज़ी के महलों से निकले,
दूर कहीं यादों की पायल बजती है, मैं लिखता हूँ।
रफ़्ता-रफ़्ता खुल जाते हैं उनके सारे राज़ ‘असीम’,
कविता उनके मन की चिट्ठी पढ़ती है, मैं लिखता हूँ।
✍️ शैलेन्द्र ‘असीम’