“मैं रावण हूँ”
बहरूपिया नहीं मैं, छलिया नहीं मैं सीना तान के अपना चलता हूँ,
अपनी लंका का मैं राजा हूँ,
दस सर वाला महा ज्ञानी
मैं दशानन रावण हूँ,
चेहरे है सबके छुपे हुए, मन में दुवेश भरे हुए,
कहते हो खुद को मानव, तुमसे बेहतर तो मैं हूँ दानव,
ना दान लूँगा ना भिक लूँगा, जो मेरा है मैं उसको छीन लूँगा,
क्योंकि मैं रूद्र रावण हूँ,
बुज़दिल नहीं मैं कायर नहीं मैं, जो पीठ में वार करते है,
एक योद्धा हूँ मैं, इंसान क्या मैं भगवान से भी लड़ सकता हूँ,
खड़ा हूँ हाथों में शस्त्र लिए हुए, है सामर्थ तो आओ युद्ध करो मुझसे, शत्रू के खून से भीगा मैं शत्रू विनाशी अति भयंकार रावण हूँ,
तुम पूछते हो औकात मेरी, तो तुमको एक कहानी सुनाता हूँ,
अपनी बहन के अपमान के लिए मैं स्वयं नारायण को भी युद्ध भूमि में ललकारा हूँ,
हाँ मैंने हरण किया एक नारी का, ये दाग लगा मुझपे जन्मों का,
मैं तो दानव था समझ ना पाया ज्ञान होते हुए भी ज्ञान को और एक नारी के सम्मान को,
तुम तो फिर भी भगवान और ज्ञानी थे, जब एक नारी की नाक कटी तब तुम तेज़ प्रतापी मोन क्यों बैठे थे,
तुम्हारे पास मेरे घर का भेदी विभीषण था,
तब जाके छल से तुमने मुझको मारा था, वरना मुझे मारने का क्या तुम में सामर्थ था??
अटल रहा मैं, में डटा रहा मैं युद्ध भूमि में,
मृत्यु के भय से भी डारा नहीं मैं,
मृत हो कर भी मृत्यु पे विजय पा गया,
मैं लंकेश्वर रावण हूँ।
-लोहित टम्टा