मैं रात अकेली
विषाद पड़ी रात
सुनसान
काली
गहरी घनी काली
अकेली
दिन की रौनक से
बस ! कुछ पहर दूर
ख़ामोशी और तन्हाई से लिपटी
सन्नाटे में मजबूर
बार-बार झांकती
अंधेरे की खिड़की से
रोशन है सारा जहां
एक मेरे हिस्से में
क्यों पड़ा
कुपित बरबस
ये घना
काला कारवां
सुप्त कुछ निंद्रा के बिछौने में
कुछ मशगूल जिस्म सहलाने में
जिनसे मुझे मशहूर कर दिया तुमने
वो जुर्म नृत्य करता एक-एक कोने में
मेरी मौजूदगी में
घटित होता रहता
मैं लाचार
नियमों से कसी-बंधी और बीमार
उगते सूरज के सब साथी
अपनी व्यथा न किसी को कह पाती
जुगनू, चांद, सितारे
बस! यही है मेरे हमराही दिलदार
बैठ कर कर लेते हैं बातें दो चार
क्यों सब कहते
रात के बाद सवेरा होगा
सन्नाटे की पीड़ा मेरी महसूस करो
कभी तो कह दो
सवेरे के बाद अंधेरा होगा
-शिखा शर्मा