मैं मुस्कराने गया था, पर मुस्करा नही पाया
हर दिन की तरह कल सुबह,
आकर उन चन्द परिंदो ने घेरा
हलवाई की दुकान के बाहर
सुबह से ही जैसे डाला था डेरा ||
कढ़ाई लगी, समोसे कचोड़ी छानी गयी
प्रातः बेला मे लोगो का समूह आया
कुछ ने चटनी से, कुछ ने सब्जी से
कुछ ने सूखा ही समोसा खाया ||
परिंदे इंतेजार मे थे कि कब
झूठन फिकेगी दुकान के बाहर
वो चुन लेंगे अपने, अपनो की खातिर
उस गंदगी के ढेर मे जाकर ||
पर आज उस झूठन को बंद
प्लास्टिक के थेलो मे फैकते हुए पाया
निराशा क्या होती है? समझा मैं
जब बेज़ुबानो को ठगा-ठगा सा पाया ||
मैं मुस्कराने गया था, पर मुस्करा नही पाया ||