मैं मजदूर
मैं मजदूर निज अरमानों की बलि लगा कर्म पर अडिग रहता
सर्दी गर्मी धूप बरसात सबकी मार सह आह तक न करता
निशब्द पत्थर में जान डाल सुन्दर मूरत बनाता
भव्य महलों इमारतो स्तम्भ में कला से पहचान बनाता
मैं जो चाहूँ बंजर भूमि पर फसल लहराकर
खंडहर को सुन्दर महल बनाकर करता बसेरा
पूँजीपतियो के एहसानो तलें दबकर रहता
दो वक्त की रोटी खातिर दिनभर मेहनत करता
मेरी पीढियां चिरकाल से धरा को स्वर्ग बनाती
तूफान ऑधी भी हम से टकराकर चली जाती
मैं मजदूर धरती मेरे ही कारण काज हो जाते सफल
फिर भी अपने सपनों को पूरा करने में रहता निष्फल
साधारण सी छवि मेरी मस्तक पर चिंता की लकीरें
फिर भी निज कर्म को रहता सदैव तत्पर