मैं मजदूर हूँ!
मैं मजदूर हूँ ,मैं मजदूर हूँ ।
हमने अपने इन हाथों से
बड़े ,बड़े पत्थर तोड़े हैं।
पर कहाँ मै अपनी
किस्मत की रेखा को,
बदल पाता हूँ।
कहाँ अपने लिए कोई
घर बना पाता हूँ।
रोज बनाता हूँ मैं गगन को
चूमता हुआ इमारत,
आलीशान महल को भी
मैं ही तो रोज बनाता हूँ।
पर कहाँ अपने लिए एक
कमरा भी बना पाता हूँ।
मैने कई तरह-तरह के
आलीशान पलंग बनाए है ,
उस पर तरह तरह के
कशिदे और रंग चढ़ाए हैं।
वह फोम वाले गद्दे भी
हमने ही तो उसपर बैठाएँ है।
पर आज भी तो हम
पत्थर पर ही सो जाते हैं।
कहाँ अपने लिए एक
बिस्तर भी खरीद पाते है।
मैंने कई तरह के लोगों
के घर में बाग लगाए हैं।
उसमें कई तरह के रसीले
फल भी आए।
उसको तोड़ कर हमने
पैक भी किया,
और लोगो के घर-घर भी
हमने ही तो पहुँचाए हैं ।
पर कहाँ हमनें उसमें से
एक फल भी खा पाए हैं।
आज भी तो हम दो जून की
रोटी के लिए ही संघर्ष कर
रहे हैं।
हमने कई खिलौने के
कारखाने में काम किया हैं ।
बड़े से लेकर छोटे तक न जाने
कितने सारे खिलौने बनाए हैं।
उन खिलौनो को घर -घर तक
हमने ही तो पहुँचाए हैं।
पर कहाँ हम अपने बच्चे को
एक छोटी सी गेंद या गुड़िया
भी दिला पाते हैं।
कहाँ हम अपनी किस्मत
को बदल पाते हैं।
शायद ही कोई ऐसा शहर हो
जहाँ मैं नही होता हूँ ।
काम की तलाश में दर-दर
भटकता रहता हूँ।
पर कहाँ नज़र उठाकर
कभी शहर को देख पाता हूँ।
कहाँ मैं अपने तकदीर
को बदल पाता हूँ।
मेरे कंधो पर हमेशा
बोझ भरा रहता है।
भारी से भारी सामान को
उठाकर न जाने कितनी
ऊँचाई तक चढ़ाता हूँ।
पर कहाँ मै अपने बच्चों को
उठाकर उन्हें खेला पाता हूँ।
मैं तो कई-कई दिनों तक
अपने बच्चे से मिल भी
नहीं पाता हूँ।
कितने चोट लगे,
कितने घाव लगे,कितने चोट लगे,
पर कहाँ अपने दर्द पर
मरहम लगा पाता हूँ।
कहाँ चंद समय रुककर
अपने दर्द का एहसास कर पाता हूँ।
आज भी तो हर रोज
भुख प्यास से लड़ता हूँ।
आज भी तो मैं शहर-शहर
दर-दर भटकता रहता हूँ।
कहाँ अपनी किस्मत को
मैं बदल पाता हूँ ।
मैं मजदूर हर रोज अपनी
किस्मत से लड़ता हूँ।
~ अनामिका