मैं मकां उसी से बचा गया
जो लिखा नसीब में है तेरे, वही ज़िन्दगी में तू पा गया ।
कहीं कोई रोता ही रह गया, तो कहीं किसी को हँसा गया ।
कहीं मज़हबी सा बवाल है, कई नोचते मिले जिस्म को,
ये अदावतों भरा दौर है, जो जहां में लाशें बिछा गया ।
कोई प्यार में है तड़प रहा, कोई प्यार को है तरस रहा,
मैं न कह सका कभी आप से, ये मलाल दिल में छिपा गया ।
न ज़मीन पर कहीं रौनकें, न तो कहकशां में चमक बची,
लगी गुलशनों में जो आग फिर, तो धुआँ फिज़ाओं में छा गया ।
मिला दर्द अपनों से जो मुझे, ‘अरविन्द’ ने न कहा कभी,
जो हुनर तमीज़ का पास था, मैं मकाँ उसी से बचा गया ।
✍️ अरविन्द त्रिवेदी
महम्मदाबाद
उन्नाव उ० प्र०