मैं भी कोई प्रीत करूँ….!
तुमसे मिलकर लगा युँ मुझको, मैं भी कोई प्रीत करूँ
राग–हृदय का तुम्हें बनाकर, खुद में मैं संगीत भरूं
हिय की नाव लहर में आई, मापू कैसे मैं गहराई
जी रह–रह कर है बल खाता, जैसे नशे में हो पुरवायी
नेह का मोती तुम्हें बनाकर, मन की प्यासी सीप भरूं
एक महकता आमंत्रण ले, देह–दहक के द्वीप चलूँ
तुमसे मिलकर लगा युँ मुझको, मैं भी कोई प्रीत करूँ
राग–हृदय का तुम्हें बनाकर, खुद में मैं संगीत भरूं
सोलह प्यार श्रृँगार सजाकर, माँग सितारों से भर जाऊँ
शरद चाँदनी तुम्हें बनाकर, मन की धरा पर तुम्हें बिछाऊँ
छत्तिस में उन्नतिस गुण मिलते, खुद को मिला मैं तीस करूँ
वरमाला जब तुम पहनाओ, झुक कर आगे शीश धरूँ
तुमसे मिलकर लगा युँ मुझको, मैं भी कोई प्रीत करूँ
राग–हृदय का तुम्हें बनाकर, खुद में मैं संगीत भरूं
प्रेम–अनुराग से खेल रहा है, स्नेह–कलश भी उड़ेल रहा है
नयनों की मादकता पाकर, तन का भवन भी डोल रहा है
बाँहोें के घेरे में लेकर, अधर–आलिंगन भींच करूँ
सहवासी चुंबन रातों में, अंकुर–ममता सींच भरूँ
तुमसे मिलकर लगा युँ मुझको, मैं भी कोई प्रीत करूँ
राग–हृदय का तुम्हें बनाकर, खुद में मैं संगीत भरूं
–सर्वेंद विक्रम सिंह
*यह मेरी स्वरचित रचना है
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