मैं बेटी
मैं बेटी
दो घरों की शान।
फिरभी अपनी नहीं पहचान।
माँ ,तुमने कितनी कोशिश की,
मैं इस दुनिया में ना आऊँ।
न जाने कितनी साजिश की,
मैं कली,न फूल बन खिलखिलाऊँ ।
मैं तब भी आई।
बनकर तेरी अनचाही संतान।
हर रोज़ तरसती रही,
सबसे पाने को थोडा सा मान।
तूने सारा लाड़ भैया पर लुटाया।
उसको दी सारी खुशियाँ।
मेरा मन फिर भी मुस्कुराया।
उसके खिलौने से छुप छुप कर खेली मैं।
रातों को चुपके से आँखों को भिंगो ली मैं।
बड़ी तमन्ना थी कुछ बनने की,
एक नया इतिहास रचने की।
तुमको मेरा साथ न भाया।
कच्ची उम्र में ही कर दिया पराया।
नया घर,नए लोग,नए रिश्ते मिले।
पर नफ़रत सबसे एकजैसे ही मिले।
मुझको रोज़ दहेज़ के ताने मिले।
मुझे सताने के कई उनको बहाने मिले।
मैं तो तेरी ही परछाई थी।
मेरी कोख में भी कली ही आई थी।
रोक रहे थे सब उसको खिलने से।
दूर न हो जाऊँ पहले ही मिलने से।
मैं लाना चाहती थी उसको इस संसार में।
बतलाती की तू है लाखो,हज़ार में।
मैं कर लेती उसको जी भर के प्यार।
लूटा देती अपने बचपन का भी दुलार।
पर शायद ये मुमकिन न होगा।
अच्छा है,जीना तेरे बिन न होगा।
चलो एक साथ दम तोड़ते हैं।
इस बेरहम दुनिया को एकसाथ छोड़ते हैं।
दहेज़ की भूख,तेरे आने की खबर ने
मुझे अग्नि में झोंक दिया है।
तेरे ही पिता ने तुझे मेरी गोद
में खेलने से रोक दिया है।
तिल तिल जलने से बेहतर
एक बार जल जाना अच्छा।
हर ख्वाहिश मारने से बेहतर
एक बार मर जाना अच्छा।
अब जाती हूँ इस दुनिया से…..
अगर भगवान मिला तो बस…..
एक दुआ मांगूंगी
अगले जनम मुझे बेटी न बनाना।
दहेज़ की आग में मुझे न जलाना।
एक और बेटी की माँ मुझको न बनाना।
अलविदा…………..