मैं बिरहन
मैंं बिरहन,
मैंं का जाँनू दुनिया की रीत रे,
जो जाँनु तो बस जाँनू अपना मनमीत रे।
पीय गये है,
छोड़कर जब से हमको बिदेस रे,
मनवा करता हमसे रोज, सौ सौ कलेस रे।
काहे नाही आती,
तुम्हरी कोई पाती,
तुम का जानो कैसे हम है रह पाती।
तकते उस डगरी को,
जिससे तुम गये पिया,
मन मेंं इक हूक उठे, निकला जाय हमरा जिया
देती रहती सखियाँँ,
सब हमको उलहन,
का बतलाउँ जी मेंं कैसी है ये उलझन।
जी का जंंजाल बना,
तुम संंग हमको नेहा लगाना,
मंंहगा पड़ गया सईयाँ हमको तुम संंग प्रीत निभाना ।
#सरितासृृजना