मैं बहुत कुछ जानता हूँ
मैं बहुत कुछ जानता हूँ
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जिन्दगी,
मैं बहुत कुछ जानता हूँ
तेरा हर अतीत, तेरा हर भविष्य।
तुमने मेरा वर्तमान नहीं जिया,
वह भी।
किन्तु,मैंने तुझे पूरी संवेदना से जिया।
सारा चैतन्य मन तुझपर लगाकर जिया।
तुमने मुझे, मेरी सत्ता की भाँति नहीं जिया।
मैं बहुत कुछ जानता हूँ।
तुने मुझे लहूलुहान किया।
मैंने तेरे जख्म सहलाये।
सारी विपरीतताओं में भी मैंने
बनायी रखी तुझपर आस्था
विनय और प्रार्थानाएँ अर्पित कर।
सारे संघर्षों में आशीर्वाद की लालसा थी
तुम पत्थरवत रहे।
जिन्दगी,
मैं बहुत कुछ जानता हूँ।
तूने पाप और पुण्य में उलझाये रखा
परिभाषित कभी नहीं किया।
मैं अपने सारे कर्मों को सशंकित हुआ देखता रहा।
मैं पाप को पुण्य और
पुण्य को पाप समझता रहा,जीता रहा।
तेरा रहस्य
जिन्दगी,
मैं बहुत कुछ जानता हूँ।
तेरे अस्तित्व का कारण, अकारण है।
तेरा होना स्वतः होने का निवारण है।
तू स्वयं को न जानता है,न पहचानता है।
हमारे होने का अधिकार करते, हो निष्क्रिय।
हमारे प्रसन्न होते मन को डराते,करते अनिश्चय।
तुम्हारी प्रसन्नता के लिए मैं सदा
रहता हूँ प्राणपन से सक्रिय।
तुम्हारा निठल्लापन
जिन्दगी,
मैं बहुत कुछ जानता हूँ।
तुम जितना मरते हो
उतना ही मैं मरता हूँ.
तुम जितना जीते हो
मैं पुनः उतना मरता हूँ।
सारा उम्र निरर्थक
जिन्दगी,
मैं बहुत कुछ जानता हूँ।
सपने जो मैं देखता हूँ
उसे तुम निद्रा में डाल देते हो।
कर्ता की भाँति स्वयं को जोड़ता हूँ क्रिया से
तुम सर्वनाम में निकाल देते हो।
मैं तुमसे जीने का गुर पूछता हूँ
तुम कल के लिए टाल देते हो।
तुम कुछ भी न छिपाओ
जिन्दगी,
मैं बहुत कुछ जानता हूँ।
तुम्हें मैं अपना नेता मानता था
तथा पुरोहित।
सारे मंत्र तेरे ग्रंथों में थे मेरे जीने के।
तुमने बाँचे नहीं ईर्ष्यावश।
तुम्हें जी न लूँ मैं।
ऎसा ही था न आशय कहो तो।
आदमी से अलग नहीं हो तुम।
जिन्दगी,
मैं बहुत कुछ जानता हूँ।
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