मैं पिता हूँ
मैं पिता हूँ
वह चुप रहता है
निहारता है खुद को
खुद को भूल जाता है
कंधों पर ज़िम्मेदारी हैं
हल्के नहीं पड़ने देता
वह सोता नहीं रातभर
खुद को तोलता है अक्सर
रुक जाये वो कैसे भला
पथ खो नहीं सकता।
बचपन, यौवन, शादी
सालगिरह सब उसकी
आँखों में तैरते रहते हैं
बाबू जी जो ठहरे पापा
क्या क्या डोलते रहते हैं।।
सब देखते हैं माँ को
वह बस हँस देता है
बैठता है कभी घर में
कभी चल निकलता है
माँग पूर्ति का नियम
उस पर होता है लागू
जैसे जैसे बढ़ती है माँग
दिल हो जाता है बेकाबू।
कभी सूने कमरे में वह
अक्सर दीवार पढ़ता है
ढूंढता है माँ को अपनी
पिता को भूल जाता है।
यह कैसा संताप है विप्र
पिता सपनों में नहीं आते
मकान को घर बनाने वाले
को कभी पसीने नहीं आते।।
खेत/खलिहान/ज़मीन
जायदाद/पेंशन/ग्रेच्यूटी
फसाद की जड़ वही है
संतान सुख की खातिर
वही तो सब खाता बही है।।
हाँ-हाँ मैं पिता हूँ
मुझे कौन समझेगा..
सूर्यकांत द्विवेदी