” मैं पापा की परछाई हूं “
छोटे से वो पैर मेरे और छोटी वो उंगलियां ,
बिन कुछ समझे पकड़ पापा का हाथ देखने चली मैं दुनिया ।
इस दुनिया ने क्या रंग सिखाया ,
दोगले रूप में जीने कि ढ़ंग सिखाया ।
थी मैं अंजान सब रंगों से ,
कुछ ने रंग बदलना सिखाया ,
कुछ ने ढ़ंग बदलना सिखाया ।
लेकिन जब से पकड़ा पापा का हाथ ,
पापा ने नि:स्वार्थ जीना सिखाया ।
खुद की खुशी ढूंढ लूं मैं ,
जिंदगी के रंगों को चूम लूं मैं ,
यही है उनके जिंदगी का आयाम ,
कभी कहते करो ,काम कभी करो दिनभर आराम ,
लेकिन आज भी उनके आगे रही मैं वहीं छोटी नादान ।
मैंने जिंदगी सरलता से जीना सीखा ,
लेकिन पापा के बिना हर लम्हा था फीका ,
रहते थे बहुत दूर लेकिन उन्ही के आशिर्वाद से खुद को आगे बढ़ाना सीखा ।
जिंदगी के एक ऐसे चरण पर खड़ी थी मैं ,
जहां पापा के हर खुशी की कड़ी थी मैं ,
पता नहीं किस उलझन में पड़ी थी मैं ,
आज भी उनके साथ के लिए अकेले खड़ी थी मैं ।
समय का एक चाल था वो ,
संगीत का एक राग था वो ,
जिस पल पाया पापा के गुण खुद में ,
मेरे जिंदगी का नया अंदाज था वो ।
मेरे पापा हैं सबसे अनमोल ,
उन्होंने दिखाया जिंदगी का हर रोल ,
अगर न होता पापा के हाथों का मोल ,
कभी ना सीख पाती रोटी बनाना गोल ,
पुरी जिंदगी बन गई मेरी भूगोल ,
पापा जी ने सिखाया हर कला का मोल ,
हो गयी मेरी जिंदगी अनमोल ।
? धन्यवाद ?
✍️ ज्योति ✍️
(17 जून 2018 पितृ दिवस के उपलक्ष्य में )
नई दिल्ली