मैं पलट कर नही देखती अगर ऐसा कहूँगी तो झूठ कहूँगी
मैं पलट कर नही देखती अगर ऐसा कहूँगी तो झूठ कहूँगी
तुम से, सबसे और खुद से…….
मैं पलटकर देखती हूँ जब कोई मेरा अपना छूटता है
क्योंकि मैं उसे अपना समझती हूँ ,उसके साथ किसी न किसी तरह जुड़ी होती हूँ,
लेकिन जब मुझे कोई छोड़ता है, मैं तब भी पलटकर देखती हूँ
हालांकि मुझे देखना नहीं चाहिए ,पर मैं देखती हूँ वो मुझसे क्यों जुड़े थे और अब क्यो छोड़ रहे हैं।।
पर इस छूटने और छोड़ने के क्रम में मैं उनदोनो के लिए मैं एक जैसी ही हूँ,
मैं दोनो को पलटकर कई बार देखती हूँ पर दोनो के लिए ही नहीं रुकती न ,न उनके रुकने की कामना करती हूं,क्योंकि मुझे पता है दोनो मेरे लिए अब नही हैं न हो सकते हैं ,इस सच्चाई को स्वीकार करके मैं आगे बढ़ जाती हूँ, हर बार जैसे नदियां बढ़ जाती है अपने आँसू अपने भीतर समाकर ,वो आँसू जिसे वो क़भी भी अपने जल में से सम्मलित नही करती,अपनी मिठास को आँसू की वजह से खारा नहीं होने देती हैं,बस चलती हैं मचलती हैं आगे ही बढ़ते जाती हैं …..