मैं नहीं कोई फूल महक जाउँ बिखरकर भी..
मैं नहीं कोई फूल महक जाउँ बिखरकर भी
क्यूंकर कोई देखे ऐसों को पलटकर भी
बसर नहीं है दुनियाँ में किसी तौर जीकर भी
देखा है कई बार अपने में सिमटकर भी
ख़्वाब ही था जो गिरने लगा आँख से बहकर
वो आ सकता था मिरे पास चलकर भी
देती है हौसला थोड़ा – थोड़ा माँ मेरी
बहुत कुछ बच गया है मेरे पास लुट कर भी
खाते हैं चोट और पालते हैं ज़ख़्मों को
चलते हैं लोग यहाँ पत्थर से हटकर भी
रहता है इक ख़ौफ़ सा महफूज़ नहीं वहाँ भी
देखा है हमने किसी के दिल रहकर भी
शोले हैं शबनम है तूफान है उल्फ़त में
देख ‘सरु’ इक बार इन राहों से ग़ुजरकर भी
—-सुरेश सांगवान ‘सरु’