मैं द्रौपदी, मेरी कल्पना
मैं द्रौपदी !
आज अपनी व्यथा सुनाने आई हूँ।
महाभारत युद्ध कराने का,
जो कंलक लगा है मुझ पर,
मै उसे मिटाने आई हूँ ।
पुरुषों की इस दुनियाँ ने
यह कैसा स्वांग रचा है ।
अपने लोभ के लिए किए गये,
इस युद्ध का भी कलंक
मेरे माथे मढ़ा है।
महाभारत युद्ध का विगुल
तो पहले ही बज उठा था।
जब हस्तिनापुर को लोभ ने
चारों तरफ से जकड़ रखा था। ।
भाई-भाई को मारने का
षडयन्त्र रचा जा रहा था ।
सब लोगों के मन में
छल-कपट भरा पड़ा था ।
हस्तिनापुर के बड़े-बुर्जगों ने भी
जैसे आँखों पर पट्टी बाँध रखा था।
सही गलत के फैसलों पर
अपना मौन साध रखा था।
में द्रौपदी ,
उस दिन ही मर चुकी थी,
जिस दिन अर्जुन के संग
हस्तिनापुर आई थी।
और माँ कुंती के एक शब्द ने मुझे,
द्रोपदी से पांचाली बना दिया था।
अर्जुन ने भी हाँ में हाँ भर,
उस पर सहमति जता दिया था।
कहाँ पति का फर्ज निभाने के लिए ,
उसने मेरा साथ दिया था।
में द्रौपदी उस दिन भी,
चीखी थी चिल्लाई थी।
अपने सम्मान के लिए
सबके सामने गिड़गिराई थी।
पर कटे पक्षी की भाँति,
उस दिन भी बहुत छटपटाई थी।
अपने पर होने वाले इस अत्याचार को,
कहाँ रोक पाई थी।
उस दिन भी तो लोगों ने
मौन साध रखा था ।
मेरे पर होने वाले अत्याचार को देखकर भी ,
आँखो पर पट्टी बाँध रखा था।
उस दिन भी तो सबने मिलकर,
मेरी आवाज को दबा दिया था।
समय पटल पर लोगो ने ऐसा दिखलाया,
जैसे कुछ हुआ ही नहीं था।
मेरे आस्तित्व पर उस दिन ही,
प्रश्न चिन्ह लग गये थे।
जब पाँच भाईयों ने मिलकर,
मेरे संग ब्याह रचाया था।
मैं द्रौपदी!
दुःशासन और दुर्योधन पर क्रोधित तो थी ही,
पर सबसे ज्यादा क्रोध मुझे
युधिष्ठर पर आ रहा था।
क्यों युधिष्ठर के नजरों में,
मेरा कोई वजूद नही था?
क्यों सामान की तरह उसने,
मुझे जुए में लगा दिया था?
बिना मेरे सहमति के उसने
ऐसा क्यों किया था?
जब मैं यह सब रोक न पाई थी ।
फिर में कैसे युद्ध करवा सकती थी।
पर मेरा यह श्राप है कि ,
जब-जब कोई भी माँ
अपने बच्चों को ,
नारी का सम्मान
करना नही सिखाएगी।
तब- तब उसके वंश का नाश,
ऐसे ही होते रहेगा।
~अनामिका