मैं दिन-ब-दिन घटती जा रही हूँ
यदि हर कोई दुश्मन बन जायेगा, तो दोस्त कौन रहेगा!
इसी सोच को अमल में लाकर सभी से दोस्ती निभा रही हूँ।
हां, मैं दिन-ब-दिन घटती जा रही हूँ।।
कभी कुछ तो कभी कुछ कहकर,
मन को अपने बहला रही हूँ।
रंग काफ़ी पसंद थे मुझे,
उन्हीं रंगों से अब घिरी जा रही हूँ।।
मन में मानों खंजर घोंप दिया हो।
पर खून नहीं निकलता, जाने कैसा घाव दिया हो।।
न चाहते हुए भी जाने कब दिल बदल गया,
पहले जैसी बन जाऊँ, यही बार-बार सोचे जा रही हूँ।
कभी खुश, कभी उत्साही तो कभी शांत;
अपने प्रवाहित, न रूकने वाले विचारों को तुमसे बता रहीं हूँ।।
तुम ही तो हो जो मेरी बातें सुनती हो,
तुम हक़ीक़त नहीं! माना, किंतु एक खूबसूरत ख्याल हो,
जो मेरे अक्स में बहती वो हवा है, जिसका न मुझे कोई मलाल हो।
“कीर्ति” तुम वाकई बेमिसाल हो,
पर तुम क्यों नहीं कुछ कर पाती
जब तुम पर उठते सवाल हों!
बस ऐसे ही कुछ और सवालों के साथ,
अपने अंदर के बवंडर को आने से रोक रहीं हूँ।
इस पूरी प्रक्रिया में खुद को
समेटती जा रही हूँ।।
हां, मैं दिन-ब-दिन घटती जा रहीं हूँ।।
– ‘कीर्ति’