*मैं, तुम और हम*
मैं तन्हा हूं,सफ़र में एकाकी हूं
तिरे इंतज़ार में ,अभी बाकी हूं
दिन कटता नहीं,रात गुजरती नहीं
कुछ भी अच्छा ,कहीं लगता नहीं
कोई हवा का झोंका,तेरी गली से जब आता है
तो बेजान से बदन ,फूल की तरह खिल जाता है
चांद देखता हूं,तो उसमें तेरी सूरत नज़र आती है
आइने में मेरी नहीं तेरी मूरत खूब रिझाती है
गली में किसी के कदमों की आहट जब सुनता हूं
लगता है जैसे तुम आए हो
जब तुम नज़र नहीं आते,तो मायूस सा हो जाता हूं
लगता है जैसे तुम पराए हो
चले आओ ओ दुनिया के सारे बंधन तोड़कर
किसी चौराहे पर,मैं और तुम की गगरी फोड़कर
मैं हूं इस पार, तुम हो उस पार
जीवन मुहाल है बगैर तेरे यार
आओ तुम और मैं मिलकर,हम हो जाएं
फूलों की हसीं वादियों में कहीं,गुम हो जाएं
आओ हम मिलकर इस मैं और तुम की दीवार गिरा दें
एक आशियाना बनाएं,
हम की नई बुनियाद को आकार दें
चले आओ तुम उस पुल पर
जहां मिले थे हम पहली वार
ऐ हवा,मेरा ये संदेश उस पार पहुंचा दे
मेरे प्यार को उस पुल पर मुझे आज मिला दे
जहां हम जहां से दूर निकल पड़ें
और फिर कभी वापस ना मुड़ें।
सुधीर कुमार
सरहिंद फतेहगढ़ साहिब पंजाब