मैं तुझमें तू मुझमें
मैं तुझमें तू मुझमें
सदा समर्पित…
कल्पनाओं की चौखटें
कौन देख रहे ?
मानों बुला रही
मुझे, इसी के पाने
करते कौन इंतजार !
ज़माना तो खिल उठी
वक्त भी किसे करते
प्रणाम…. सदा और तो
इस जमीं में मैंने देखा
उदय की ओर निगाहें
किन्तु अस्त की ओर
कौन करता इस्तकबाल ?
तेरे रूप सौन्दर्य को
देखें थे हम कभी
क्या ! कलाओं से परिपूर्ण
सोलह शृंगारों से
अलबेले भी आश्चर्य में
लगी जलने और मंडराने
मैं तो तड़प उठी पर तू नहीं
तेरे ख्वाबों के चित्र स्वयं में
हरेकों अनुपातों में…..
हरेकों रेखाओं से खींचे तुझे
तू तो नहीं बनी वो बिखरे
कागज़ों के पन्नों पे
कलम भी फिसल गए
फिर भी मैं नहीं माना
कैसे बताऊं तुझे पाने की
घनघोर ख़्वाहिश हिय में
फिर एक और प्रयत्न
करने की कोशिश खुद को
बहे गंग – सी धार की कंपन
झंकृति ला देती कहर तो प्रबल
तू जवां है पर मैं नहीं
तेरी निग़ाहें कोमल-सी
आंखें तो तेरे अंतरिक्ष
कान्ति भी धूमिल यहां
तेरी आवाज़ क्यों न
मुझे स्थिर रखती!
मचल उठती तुझसे
तेरी पीछे के चित्र से
क्यों हो जाती प्रेम !
तू न सही तो प्रकृति से ही
हरेक कणों को
खुद में होती अनुभूति
प्रेयसी – सी
क्योंकि इसी कणों में
कहीं तो हो तू व्याप्त
इसी से प्रेम है बस
इसी से……. ग़र तू न
मिलो तो सही ।