“मैं जो खाऊ तुम्हे क्या!” (मांसाहार पर दो टूक /- भाग 2)
कल जब मेट्रो से जा रहा था, तीन संभ्रांत परिवार की लड़कियों को बात करते हुए सुना। एक कह रही थी, “मैंने सूअर टेस्ट किया हैं। खाने में बहुत अच्छा था।” बाकी दोनों उसका मुँह ताकने लगी; कहीं बाकि लोगो से सुन लिया तो क्या सोचेंगे। इस पर पहली लड़की ने अपना बचाव करते हुए कहा “हां मै कटते हुए जानवर को नही देख सकती , पर खा जरूर लेती हूँ हा हा हाहा……”।
मैं सोचता रहा .. क्या जानवरों की औकात सिर्फ इतनी सी हैं कि कोई भी, कभी भी उन्हें काटे और खा जाये। क्या उनकी जान की कोई कीमत नही हैं? सोच कर मन ख़राब हो गया। लड़कियों पर थोड़ा गुस्सा भी आया। फिर एकाएक खुद को बेवकूफ समझने लगा। एक आम बोलचाल की बात मन में कौंध गयी ‘ मैं कुछ भी खाऊ तुम्हे क्या!’
कभी कोशिश करिये और अपने बेटे या बेटी का कोई भी अंग या उसका छोटा सा टुकड़ा काटिये और खाइये। उसका टेस्ट भी बताइये जनाब! अरे! आप तो भड़क उठे! क्या करे बात ही भड़कने की है। पर अफ़सोस .. आप की तरह ये बेचारे मूक और भोले जानवर नही भड़क सकते, अगर भड़केंगे भी तो आप जैसे वहशियों के सामने भला इनकी क्या बिसात? उस दर्द को महसुस करना बड़ा ही मुश्किल है साहब। आप है कि बस स्वाद के लिए खाये जाते हों .. खाये जाते है.. मुझे तो लगता हैं उस मांस में अगर कोई इंसान के मांस का टुकड़ा भी डाल जाये तो आप खा जायेंगे। अजी आपको क्या पता किसका मांस हैं?
आदिवासियों और असभ्य लोगो के भोजन को आपने अब तक भी अपनाया हुआ हैं। संसार में कुछ लोगो के पास कोई विकल्प नहीँ हैं। नितांत मज़बूरी में मांसाहार उनका प्रिय भोजन बन चुका हैं। पर ऐसे लोगो के बारे में क्या कहे जिन्हें भगवान् ने ढेरों साग सब्जियां, फल, दूध और ऐसी ही अन्य शक्तिशाली और स्वादिष्ट चीज़े उपलब्ध करा रखी हैं ।
वास्तव में वे लोग बेहद स्वार्थी हैं। जो मात्र अपने जीभ के स्वाद के लिए बेजुबान जानवरों को अपना निवाला बनाते हैं। समय रहते हमें इस पर विचार करना चाहिए। मांसाहार का त्याग आज और अभी से करना चाहिए। दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करना चाहिए।
-© नीरज चौहान
स्वतंत्र विचार