मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया
हर फिक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया !
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गीत अपनी जगह और वैधानिक चेतावनी – ‘सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है ! ‘ अपनी जगह !
तो क्यों न हर फिक्र को धुएं में उड़ा देने की बजाय अपनी बेबाक खिलखिलाती हंसी और मुस्कुराहट में ही उड़ा दिया जाए !
ईश्वर द्वारा प्राप्त इस खूबसूरत जिंदगी का तोहफा अनमोल होेने के साथ-साथ अनगिनत रहस्यों से भरा पड़ा है ! जन्म से लेकर मृत्यु तक की इस जीवन यात्रा के रास्ते बेहद कंटीले और ऊबड़-खाबड़ हैं. कई कठिन रास्ते जहां दुखों से मुलाकात कराते हैं ,वहीं कुछ रास्ते इतने सरल होते हैं जो जिंदगी के सफर को आनंद और खुशियां से भर देते हैं . जिंदगी की राह पर विपरीत परिस्थितियों के चलते कभी तो हमें यात्रा रोक कर किसी अनचाहे पड़ाव पर रुकना पड़ता है तो कभी हम स्वयं ही यात्रा रोक कर किसी अंजान मंजिल पर पहुंच कर आनंद और सुकून के पल बिताते हैं !
यहां खुशियां कब सामने से आकर गले लगा लें और कब दुख आकर हमें गमों की अंधेरी खाई में धकेल दे ,कह नही सकते!
कोई अजनबी कब आकर हाथ पकड़ ले और कब कोई अपना हाथ छुड़ा कर चला जाए , सब अनिश्चित है !
जीवन परिवर्तनशील है . इसकी यात्रा कभी एक सी नहीं रह सकती. हमें याद रखना चाहिए कि यह जीवन हमारी योजनाओं के हिसाब से कभी चल ही नहीं सकता. इसके अपने अलग नियम और कायदे-कानून हैं जो पहले से निश्चित नहीं होते.
और फिर जब जिंदगी हमारी भावनाओं की बिल्कुल परवाह नहीं करती तो हमें भी क्या ज़रूरत है उसकी परवाह करने की ?
क्यों हम उसके दिए गमों और खुशियों की परवाह करें ?
क्यों हम उसके दिए चंद पलों को यूंहीं शोक मनाकर व्यर्थ जाने दें ?
क्यों हम उसे खुदपर हंसने का मौका दें ?
हमें हर हाल में जिंदगी को खुदपर हावी होने देने से रोकना होगा. हमें जिंदगी द्वारा दी गई हर चुनौती को हंसते मुस्कुराते स्वीकार कर जिंदगी को ठेंगा दिखाना होगा कि तुम मुझे यूं हरा नहीं सकती.
आने वाले पल की फिक्र में वर्तमान में मिले पल को गंवाने से कुछ हासिल नहीं होने वाला.
फिक्र रूपी पत्थर को पैर की ठोकर मार कर दूर कर देने से ही जीवन की यात्रा की कठिनाई दूर हो जाएगी.
बस जिंदगी को कुछ अलग ही अंदाज़ में जीने का संदेश देता गीत है ‘मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया !’ जो 1961 में आई फिल्म ‘हम दोनों’ का है. जिसे स्वर दिया है मुहम्मद रफी जी ने और संगीतकार है जयदेव .
साहिर लुधियानवी द्वारा कलमबद्ध यह गज़ल एक प्रकार से जिंदगी से जुड़ा पूरा आध्यात्मिक ज्ञान बहुत ही सहज और सरल भाव से समझा कर चली जाती है !
यदि ध्यान देकर समझा जाए तो यह गीत ‘गीता दर्शन’ और लाओत्से के ‘ताओ’ दर्शन से प्रेरित है. जिसके अनुसार हमें सदा वर्तमान में ही जीना चाहिए.
क्योंकि हर आने वाला पल अनिश्चितिताओं से भरा हुआ है जिसका हमें आभास तक नहीं ! तो जो चीज़ अपने वश में ही न हो उसे सोचना व्यर्थ ही है!
फिल्म में दो हमशक्ल सैनिक एक दूसरे के जीवन में उलझते हैं और जब उनमें से एक लड़ाई में पराजित होता हैं और एक को मृत माना जाता है,तब दूसरा परिवार को सूचित करने चला जाता है,लेकिन वह एक समान दिखने से भ्रम में उसके जीवन को अपनाने को मजबूर हो जाता है. जिंदगी की इसी उलझी हुई दास्तां को पर्दे पर जीवंत किया है देवानंद ने जो कभी आनंद तो कभी मेजर वर्मा के जीवन की विपरीत और दुश्वार परिस्थियों से जूझते हुए जिंदगी की राह पर निरंतर आगे बढ़ते हैं ! देवानंद का बेफिक्री और बेपरवाही भरा अंदाज़ देखते ही बनता है !
‘मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया
हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया
बरबादियों का सोग मनाना फ़जूल था
बरबादियों का जश्न मनाता चला गया
हर फ़िक्र को…’
पुराना मरता है तो नया जन्म लेता है. यानि कि जब हम समझते हैं कि अब सब खत्म हो चुका कुछ बाकी न रहा , बस वही क्षण किसी नई शुरूआत के जन्म का होता है.
पतझड़ के बाद ही नए पत्ते आते हैं .
तो जब भी कोई परिस्थिती ऐसी आए तो उसका भी आनंद लेना चाहिए.
‘जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया
जो खो गया मैं उसको भुलाता चला गया
हर फ़िक्र को…’
हम इस संसार में कुछ भी साथ लेकर नहीं आते न ही साथ लेकर जाते हैं . तो जो मिला यंही मिला और यहीं खो गया. स्पष्ट है कि हमारा कुछ भी नहीं. सफर में जो सामान साथ है वह जब हमारा है ही नहीं तो उसके मिलने और खोने का गम करना व्यर्थ है!
‘ग़म और ख़ुशी में फ़र्क़ न महसूस हो जहाँ
मैं दिल को उस मुक़ाम पे लाता चला गया
मैं ज़िन्दगी का साथ…’
गम और खुशी जीवन की दो ऐसी स्थितियां हैं सदैव स्थिर नहीं रहती. गम के बाद खुशी और खुशी के बाद गम का यह चक्र निरंतर चलता रहता है. तो हमें अपनी भावनाओं को हमेशा संतुलित रखना चाहिए . न गम में दुखी न सुख में खुशी. बस एक संतुलन बनाकर सदा चलते रहना चाहिए.
देखा जाए तो यह पूरा गीत ही गीता में वर्णित ‘स्थित-प्रज्ञ ‘का ही एक रूप है ! जिस के अनुसार गीता में भगवान श्रीकृष्ण इस ‘स्थितप्रज्ञ दशा’ , को प्राप्त करना ही जिंदगी की यात्रा का अंतिम पड़ाव मानते हैं। ‘
यह गीत यदि हम अपने जीवन में उतार लें तो सभी गिले-शिकवे दूर हो जाएं !
बिना किसी आधुनिक डिजिटल मिक्सिंग इफैक्ट्स के केवल साधारण से वाद्य यंत्रों द्वारा इतना मधुर और कर्णप्रिय संगीत केवल उसी गोल्डन पीरियड की देन है.
जीवन के आध्यात्मिक स्वरूप को किताबों की शेल्फों की जेल से रिहा कर इस सरल से गीत के ज़रिए हमारे लबों तक पहुंचाने और जीवन में उतारने का श्रेय साहिल जी को जाता है.
देव आनंद के सिगरेट लाइटर की आवाज़ के संगीत से शुरू हुए इस गीत का अंत भी इसी से होता है.
‘उलझनों में भी जो शांत और सुलझा रहे वो शख्स बनो !
दुख जिसे देखकर राह बदल लें वो शख्स बनो !
रंजो-गम खुद ही दामन छुड़ा लें वो शख्स बनो !
उदासियां जिसके गले मिलकर मुस्कुराएं वो शख्स बनो !
जिंदगी जिसका नाम सुनते ही खिलखिलाए वो शख्स बनो !’
~ Sugyata
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