मैं चुप रही ….
मैं चुप रही ….
रात के पिछले पहर
पलकों की शाखाओं पर
कुछ कोपलें
ख़्वाबों की उग आई थीं
याद है तुम्हें
तुम ने
चुपके से
मेरे ख्वाबों की
कुछ कोपलें
चुराई थीं
मैं चुप रही
तुमने
अपने स्पर्श से
उनमें बैचैनी का
सैलाब भर दिया
मैं चुप रही
तुमने
मेरी पलकों की
शाखाओं पर
अपने अधरों से
सुप्त तृष्णा को
जागृत किया
मैं चुप रही
रात की उम्र
ढलती रही
कोपलें
ख़्वाबों की
पलकों के
अतृप्त आँगन में
शनैः शनैः
झरती रही
तुम भी आखिर
ख्वाब ही निकले
मेरे ख्वाब की
हर कोपल तोड़
तुम भी
आखिर ख्वाब की तरह
मेरी झोली को
प्रतीक्षा पलों से भर
चुपचाप चल दिए
और
मैं चुप रही
सुशील सरना/12-4-24