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26 May 2024 · 5 min read

बाबा लक्ष्मण दास की समाधि पर लगे पत्थर पर लिखा हुआ फारसी का

बाबा लक्ष्मण दास की समाधि पर लगे पत्थर पर लिखा हुआ फारसी का लेख
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पितृ पक्ष की अमावस्या तदनुसार 28 सितंबर 2019 को बाबा लक्ष्मण दास जी की समाधि पर माथा टेकने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। समाधि स्थल की परिक्रमा करते समय दीवार पर लगे हुए एक पुराने पत्थर पर निगाह फिर से ठहर गई । यद्यपि समाधि पर सैकड़ों बल्कि हजारों पत्थरों से बहुत सुंदर निर्माण कार्य परिसर में हुआ है और कहना न होगा कि समाधि के संचालक तन मन धन से इस महान आध्यात्मिक केंद्र को उसकी गरिमा के अनुरूप संचालित करने के लिए स्वयं को अर्पित किए हुए हैं। जितना निर्माण इधर आकर हुआ है , वह प्रशंसा के योग्य है और समाधि की देखभाल करने वाले सभी सज्जन इसके लिए बधाई के पात्र हैं ।
फारसी में लिखा पुराना पत्थर सहज ही ध्यान आकृष्ट करता है। देखने में लगता है कि इस पर उर्दू में कुछ लिखा होगा लेकिन वास्तव में यह फारसी में लिखा हुआ है ,जिसके पढ़ने वाले अब बहुत कम रह गए हैं । उस पर भी समस्या यह है ऐसा प्रतीत होता है कि काव्य – शैली में लिखा हुआ है, जिसके कारण पढ़ना और भी कठिन हो गया है। साधारण भाषा में अगर कुछ लिखा जाए तो पढ़ भी लिया जाता है , लेकिन जब काव्यात्मक रूप से कुछ लिखा जाता है तो सीधे-सीधे पढ़कर उनके अर्थ अक्सर प्रकट नहीं होते ।बाबा लक्ष्मण दास की समाधि पर लगे हुए पत्थर के बारे में भी ऐसा ही है ।
मैंने उस पत्थर की फोटो खींचकर कुछ व्हाट्सएप समूहों में डाली। मुझे तत्काल” साहित्यिक मुरादाबाद” समूह में श्री फरहत अली खान की बहुमूल्य प्रतिक्रिया प्राप्त हुई। आपने पत्थर पर लिखे हुए को पढ़ने में न केवल समय लगाया बल्कि जितना संभव हो सकता था उसकी व्याख्या मुझे भेजी। आपने यह बताया कि यह फारसी में लिखे हुए कुछ अशआर हैं और आपने केवल इतना ही नहीं अपितु उसमें 1310 हिजरी जो कि इस्लामिक कैलेंडर के हिसाब से होती है वह लिखी हुई बताई तथा आपने उस तारीख को ईसवी सन् में बदलकर 5 मई 1893 की तारीख निकाली । अतः यह भली-भांति स्पष्ट हो गया कि आज जबकि सितंबर 2019 चल रहा है तब इस पत्थर पर अंकित अतिथि 126 वर्ष पुरानी है अर्थात यह बात स्पष्ट हो गई कि यह पत्थर 126 साल पहले लगाया गया था, तथा इस पर तदनुसार 5 मई 1893 की तिथि बैठती है । वास्तव में अंकित तिथि हिजरी में है । यह भी पता चल गया कि फारसी की काव्यात्मक पंक्तियां इस पर अंकित हैं। कभी न कभी, कोई न कोई विद्वान इस पर लिखे हुए को पढ़ने में सक्षम हो सकेंगे और ठीक ठीक जो लिखा हुआ है वह हमारे सामने आएगा और उससे इस पत्थर के लगाए जाने की क्या उपयोगिता रही होगी, वह स्पष्ट हो सकेगा। वास्तव में शिलालेख जो लगाए जाते हैं , इसीलिए लगते हैं कि सैकड़ों सालों तक चीजें इतिहास के पृष्ठों पर अंकित हो जाएं और लंबे समय के बाद जब कोई बताने वाला न रहे कि इतिहास क्या था, तब उस पत्थर को देखकर और उसको पढ़कर हम इतिहास में जाकर विचरण कर सकें ।
बाबा लक्ष्मण दास रामपुर के महान संत थे ।आपने जेठ कृष्ण पक्ष पंचमी संवत 1950 तदनुसार 5 मई 1893 को “जीवित अवस्था में समाधि” ली थी और जनश्रुतियों के अनुसार यह जीवित अवस्था में समाधि लेना एक बहुत बड़ी आध्यात्मिक घटना थी। इसका श्रेय मुख्य रूप से उस परंपरा को जाता है जिसमें आप सुभान शाह मियाँ के शिष्य रहे तथा आपने आध्यात्मिक शक्तियाँ अपने गुरु श्री सुभान शाह मियाँ से प्राप्त की थीं। वास्तव में देखा जाए तो सुभान शाह मियाँ और बाबा लक्ष्मण दास यह दोनों का जो गुरु और शिष्य का संबंध है वह इस बात को भी दर्शाता है कि आध्यात्मिकता संप्रदायों की संकुचित सीमाओं से ऊपर हुआ करती है या यूं कहिए कि आध्यात्मिक विभूतियों को तथा आध्यात्मिक महापुरुषों को हम किसी सीमा में नहीं बाँध सकते। वह मनुष्य जाति की धरोहर हैं तथा समस्त मनुष्यता को उनसे प्रेरणा प्राप्त होती है।
इस लेख के साथ मैंने पत्थर पर जो लिखा हुआ है उस पर एक अन्य व्हाट्सएप ग्रुप “वैश्य समाज” पर् श्री कमल सिंहल से प्राप्त टिप्पणी को भी दिया है । वह भी यही है कि इसमें फारसी में कुछ लिखा हुआ है। यद्यपि तारीख के मामले में फरहत अली खान साहब की राय मुझे ज्यादा सटीक जँच रही है ।
बाबा लक्ष्मण दास जी की समाधि के संबंध में मैंने अनेक वर्ष पूर्व एक चालीसा “बाबा लक्ष्मण दास समाधि चालीसा” लिखा था , जो प्रमुखता से जीवित अवस्था में समाधि लेने की उनकी अति विशिष्ट घटना को रेखांकित करने के लिए था । एक लेख मैंने सुभान शाह मियाँ की मजार पर जाकर लौटने के बाद लिखा तथा इसमें सुभान शाह मियाँ और उनके शिष्य गुल मियाँ साहब की आध्यात्मिक शक्तियों को मैंने जैसा अनुभव किया , उस लेख में वैसा ही वर्णित किया गया है । इन सब बातों को अनेक वर्ष बीत गए हैं लेकिन पुनः पाठकों की सेवा में उन्हें उपस्थित करना उचित रहेगा ।
हिंदी के वरिष्ठ कवि स्वर्गीय भारत भूषण जी ने मेरे सुभान शाह मियाँ विषयक लेख को सहकारी युग, साप्ताहिक में पढ़ने के बाद एक टिप्पणी लिखी थी ,वह मैं पुनः प्रकाशित कर रहा हूँ । आशा है पाठकों को इससे लाभ होगा।

समाधि पर पत्थर 5 मई 1893 को लगा है और उस समय नवाब हामिद अली खान को सत्तासीन हुए लगभग सवा साल हुआ था। रामपुर में फारसी का प्रचलन नवाब कल्बे अली खान के शासनकाल में देखने में बहुत आया। आपका कार्यकाल 1865 से 1887 तक रहा । इस अवधि में आपने स्वयं भी एक साहित्यकार के रूप में फारसी लेखन में रुचि ली ,इसके साथ ही आपने रामपुर में हिंदी के लेखकों को फारसी भाषा में लिखी हुई पुस्तकों के हिंदी अनुवाद करने के लिए भी प्रेरित किया। इसी प्रेरणा का एक परिणाम श्री बलदेव दास चौबे ,शाहबाद, रामपुर द्वारा फारसी भाषा के प्रसिद्ध कवि शेख सादी की पुस्तक ” करीमा ” का ब्रजभाषा हिंदी में अनुवाद था जो 1873 ईसवी में नवाब कल्ब अली खान के शासनकाल में प्रकाशित किया गया ।
यह सब कहने का तात्पर्य केवल इतना ही है कि बाबा लक्ष्मण दास की समाधि पर जो फारसी का पत्थर लगा हुआ है वह इस बात को इंगित करता है कि उस समय रामपुर में फारसी प्रचलन में आने लगी थी और शिलालेखों पर उसका उपयोग चल रहा था। इसके जानकार रियासत में काफी संख्या में थे । फारसी में खूब लिखा जा रहा था तथा फारसी भाषा का हिंदी में अनुवाद हो रहा था तथा फारसी लोकभाषा तो हम नहीं कह सकते लेकिन हाँँ विद्वानों के बीच एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर चुकी थी।
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लेखकः रवि प्रकाश , बाजार सर्राफा, रामपुर( उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99 97 61 545 1

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