मैं चला बन एक राही
मैं चला एक राही बनकर
राह साधे मंजिल की ओर
कुछ कदमे ही तो चली हमने
मन करता लौट चलें दूसरे ओर
कुछ लोग मिले कुछ बातें की
कुछ सफल मिले कुछ असफल
सफल मनुज की एक कॉमन…
सबने अपनी कथा की सार
अपने कह सुनाया कि हम भी
मंजिल हेतु सोच बढे थे इस ओर
हम भी एक संभावनाएं हारी
दो, तीन, चार… जैसे कई हारे
पर हमने कभी धीरज ने हारी
तभी तो मिली है मंजिल आज…
कान लगाकर हमने सनी
उस असफल से सफल
मनुज की सफल गाथा
सबका एक कोमन मुलमंत्र
धीरज रखने की जो थी
उसे मैं ले उड़ा गगन में
मुझे अब विश्वास हो चला
अब शिखर पा के ही लौटूंगा
कदम बढ़ा बढ़ा फिसल कर
बढ़ रहा अपनी मंजिल की ओर
इस आस में कि एक न एक दिन
मंजिल मिलेगी ही, मंजिल मिलेगी ही।
कवि:- अमरेश कुमार वर्मा