मैं घरौंदा रेत का
सागर सा तू विशाल, मैं घरौंदा रेत का l
निश्चित है परिणाम, इस जीवन के खेल का ll
उद्देश्य ढूंढता हूं, दो लहरों के दरमियां l
क्या सबब है यहां, तेरे मेरे मेल का ll
डूबती कश्ती भी देखो, आखिर क्या करे l
ढूंढता उस पर ठिकाना ,एक परिंदा दूर का ll
आती हुई लहरें सुना ,जाती भी हैं यहां l
छोड़ तट पर ढेर ,मोतियों के सीप का ll
छोटी सी उम्मीद ही “सलिल” तेरे लिए l
हौसला जो साथ ,बन जाए पत्थर मील का ll
संजय सिंह “सलिल”
प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश l