*”मैं खुली किताब हूँ”*
मैं खुली किताब हूँ
कोरे कागज पे काले अक्षरों में रचित ,
हर पन्नों में नया एहसास जगाती हूँ।
अंतर्मन का द्वार खोल ज्ञान चक्षु में,
जीवन को परखते आँकते जाती हूँ।
“हाँ …मैं खुली किताब हूँ।
जीवन का साक्षात कराती व्यक्तित्व को ,
आईना दिखा प्रत्यक्ष प्रमाण बना जाती हूँ।
जीने की ललक जगाते हुए ,
पथ प्रदर्शक हमसफ़र बन जाती हूँ।
“हाँ ..मैं खुली किताब हूँ।
कलम की नोंक सी सीधी चलकर ,
शब्द शिल्प सुंदर संसार रच जाती हूँ।
कथा कहानी गीत गजल काव्य रचना में,
डूबकर गहन चिंतन मनन करा जाती हूँ।
हर सवालों के जवाब ढूढ़ कर ,
खुद की पहचान से तलाशती जाती हूँ।
हो सके तो खुली किताब की तरह से पढ़ लो ,
न जानें किस ख्यालात में खो गुम हो जाती हूँ।
“हाँ ….मैं खुली किताब हूँ।
सफलता की प्रसिद्ध सीढ़ी पे चढ़ कर ,
आने वाली पीढ़ियों का उद्धार कर जाती हूँ।
किताब के अंतिम छोर तक ,जो कभी खत्म ना हो जीवन सफल बना जाती हूँ।
उलझनों की गुत्थी सुलझाने के लिए ,
गूढ़ रहस्यों को बतलाकर ,सुघड व्यक्तित्व बना जाती हूँ।
“हाँ …मैं खुली किताब हूँ।
दुनिया के तजुर्बे आजमाकर सीख देते हुए ,
पहेली बन खुद की पहचान करा जाती हूँ।
कुछ पन्ने पलटकर पढ़ सको तो पढ़ लेना ,
कुछ शब्द रुलाते कुछ गुदगुदाते कुछ मौन स्तब्ध प्रश्न चिन्ह छोड़ जाती हूँ।
कुछ बातें कही अनकही सी अधूरी रह ,
अधूरे ख्वाबों की तरह अधूरे पन्नों में कभी खाली छोड़ जाती हूँ।
“हाँ ….मैं खुली किताब हूँ।
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शशिकला व्यास✍️