“मैं क्षमता हूॅं”
“मैं क्षमता हूॅं”
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मैं हूॅं, अपने देश,
नही कोई मुझमें द्वेष,
मैं एक सेवक हूॅं,
मैं ही खेवक हूॅं।
“मैं क्षमता हूॅं”।
मुझमें ना लोभ है,
ना है, कोई लालच;
ना कोई है, आलस;
मैं हूॅं, एक कार्यपालक।
“मैं क्षमता हूॅं”।
मेरी अपनी है,नसीब;
ना, मैं अमीर हूॅं;
ना मैं हूॅं, गरीब;
फिर भी सबके हूं,करीब।
“मैं क्षमता हूॅं”।
मैं ही शिक्षक हूॅं,
मैं एक संरक्षक हूॅं,
मुझमें है, सबका विश्वास,
मैं हूॅं, सबका आस।
“मैं क्षमता हूॅं”।
मैं एक चरित्र हूॅं,
मैं ही मित्र हूॅं,
मैं ही इत्र हूॅं,
मैं बहुत पवित्र हूॅं।
“मै क्षमता हूॅं”
मैं एक पिता हूँ,
मैं ही ममता भी हूॅं,
मैं भाई भी हूॅं,
सबका मैं दवाई भी हूॅं।
“मैं क्षमता हूॅं”
मैं निर्दयी हूॅं, मैं दयावान भी हूॅं,
मैं मुरख और विद्वान भी हूॅं,
मैं सुस्त और चंचल भी हूॅं,
मैं गांव और अंचल भी हूॅं।
“मैं क्षमता हूॅं”
मैं एक संस्कार हूॅं,
मैं ही प्यार हूॅं,
मैं ही अत्याचार हूॅं,
मैं ही पर्व-त्योहार हूॅं।
“मैं क्षमता हूॅं”
मैं बुरा हूॅं,
मैं अच्छा भी हूॅं,
मैं झूठा,और;
मैं ही सच्चा भी हूॅं।
“मैं क्षमता हूॅं”
मैं अनाड़ी हूॅं,
मैं ही खिलाड़ी हूॅं,
मैं एक खुली ‘किताब’ हूॅं,
मैं बंद ‘किबाड़ी’ हूॅं।
“मैं क्षमता हूॅं”
मैं मोह माया हूॅं,
फिर भी एक काया हूॅं,
मैं कुछ कर्म करने,
इस जगत में आया हूॅं,
“मैं क्षमता हूॅं”
मैं खुद एक प्रकार हूॅं,
मैं न्याय हूॅं, मैं ललकार हूॅं;
मैं नियंता हूॅं, मैं ‘अभियंता’ हूॅं,;
मैं एक कर्मकार हूॅं,
मैं नाई, बढ़ई और कुम्हार हूॅं,
मैं ही सरकार हूॅं।
“मैं क्षमता हूॅं”
मैं मालिक हूॅं,
मैं नौकर भी हूॅं,
मैं मजदूर हूॅं,
मैं मजबूर भी हूॅं,
और मगरूर भी हूॅं।
“मैं क्षमता हूॅं”
मैं ही वक्ता हूॅं,
मैं एक ‘प्रवक्ता’ हूॅं,
मैं ही ‘अधिवक्ता’ हूॅं,
मैं सब कर सकता हूॅं।
“मैं क्षमता हूॅं”
मैं ही करण हूॅं,
मैं कर्म हूॅं,
मैं ही कर्ता और,
मैं ही संबोधन हूॅं,
“मैं क्षमता हूॅं”
मैं संप्रदान ,आपादान हूॅं;
मैं हर चीज़ का निदान हूॅं,
मैं ही अधिकरण; और,
हर संबंध हूॅं,
मैं खुद एक ‘निबंध’ हूॅं।
“मैं क्षमता हूॅं”
मैं संज्ञा हूॅं,
मैं ही सर्वनाम हूॅं,
मैं विशेषण और क्रिया हूॅं,
मैं एक निराकरण हूॅं,
मैं ही ‘व्याकरण’ हूॅं।
“मैं क्षमता हूॅं”
आखिर, मैं एक कवि हूॅं,,,
हां, मैं ही क्षमता हूॅं…………
स्वरचित सह मौलिक
……….✍️पंकज कर्ण
कटिहार,
२४/६/२०२१