मैं क्या जानूँ
उस अरूप को मैं क्या जानूं..
जो समक्ष आता ही नहीं
उस निराकार को क्या पहचानूं..
स्नेह अगाध परंतु उसको
प्रियतम भी मैं कैसे मानूं..
पीर नीर बन बरस रहा है
क्या सुख की मैं चादर तानूं…
साँसों में संचित कर लूं
या प्राणों में निःशब्द छुपा लूं…
झिलमिल झिलमिल झलक रहा वह
रूप सलोना हृदय समा लूं….
एक बार बस मुझे दिखो मैं
चरण धूल माथे से लगा लूं…