मैं क्या उदधि पाऊंगा?
बूँद भरके भी,
मैं क्या उदधि पाऊँगा?
अचरज होता है रोज
और रोज एक विश्वास बनता है,
बिलकुल ही शांत
सुबह के उस खास लम्हें को देखकर
जब चिड़िया चहचहाती नहीं,
बाहर रास्तों पर कोई हलचल नहीं होती,
दूजा कोई धीमे-धीमे
कदमों की आहट भी नहीं करता,
और ना ही कहीं दूर से
कोई आवाज़ सुनाई पड़ती है।
तो इस क्षण क्षण में
सारी दुनिया बेजान लगती है
जहां सिर्फ मैं और एक रौशनी
जो भली बुरी संगतियों से अछूत होकर
कई आयामों से गुजरते हुए
मुझे छूती है
तो मन तटस्थ होकर,
एक नई दिशा चुनता है
जिस ओर चलने की
साहस की अनुभूति,
हां, ऐसी ही अनुभूति ,
बहुधा ध्यान में तपकर भी
जरा सोचों,
मैं कहाँ से लाऊगाँ।
बूँदै – बूँद भरके भी,
मैं क्या उदधि पाऊगाँ?