मैं कह न सका
मैं कह न सका
झिझक मेरे मन में थी,
वह कह न सकी,
लोक लाज के डर से,
डरपोक कह आगे बढी,
मन उसको भी था,
शर्म सोलह श्रृंगार का हिस्सा,
वह भी हिचक गई
न वो जी सकी,
न मुझे मौत आई,
आईने मेरे समाज के,
परम्परा बचनी चाहिए,
आदमी भले मरे,
मुर्दे तैरते है,
जिंदा आदमी डूब जाता है,
तैर कर पार होता है
भवसागर
सरल सहज निसर्ग
स्वभाव से,
डूब जायेगा
क्षमता से अधिक
प्रयास करके.
मैं कह न सका,
जनता सुन नहीं पायेगा,
बंधी है आस्था जिनकी,
पौराणिक कथाओं में
लिखी गई है कहानी,
समाज के विनाश की.
कौन कहेगा सिद्ध हुआ,
चलन शुरु हुआ उस
मानव निर्मित दुनिया जहान् का