मैं और मेरे ख़्वाब
शहर के किसी एक कोने से
कुछ सुन कर कुछ सुना कर
अपने साथ कुछ खुशियां समेट लाता हूँ
साथ-साथ थोड़ा धका सा
थोड़ा प्यासा घर आता हूं
पर मैं खुश होकर आता हूँ
सब कुछ प्यारा सपना सा लगता है
घर मे आकर सुस्ताता हूँ
खुशियों को संभाले मुस्कुराता हूँ
खाता हूं फिर ख़ुशी-ख़ुशी सो जाता हूँ
सुबह थकान में नींद खुलती है
अज़ीब से ख़ालीपन के साथ
लगता है अपना बहुत कुछ चला गया
और फिर घरवाले सवाल करते है
-दीपक सिंह