मैं और दर्पण
काम में व्यस्त उलझी-सुलझी
कमरे-किचन से भागी दौड़ी…
न जाने सुबह कैसी लगती..??
फिर निपट कामकाज से
बेफिक्र…
बैठती तेरे सामने आकर
संजती ,संवरती, गुनगुनाती
तरीके से केश संवारती
तनिक खुद को तुझ में निहारती
सुबह की काया को कुछ अलग पाती
तेरे निर्मल आंगन में मै बदली-बदली लगती
रोजमर्रा की चीज मेरे दर्पण…
मेरा सुंदर रूप रोज तुझ में देख पाती
तो मैं थकी हारी भी खिल जाती
खड़े पिया की बाहों आलिंगनबद्ध पाती।
-सीमा गुप्ता, अलवर राजस्थान