“मैं और ईश”
“मैं और ईश”
(अविश्वासनिय, परन्तु सत्य )
कन्या कुमारी के अलग-अलग स्थानों के दर्शन के बाद, रेल द्वारा दूसरे स्थान रवाना हुआ औऱ भोर 3 बजे उस शहर पहुँचा l
(शहर का नाम न बताना प्रण बध हूँ )
सोए हुए शांत शहर के स्टेशन से पैदल चलकर प्रातः 3.30 बजे दिव्य मंदिर पहुंचा ।
एक छोटी सी दुकान मन्दिर परिसर से लगा हुआ अभी-अभी खुली. दुकानदार ने नमस्कारम किया, मैंने भी नमस्कार किया I
आगे कोई बात नहीं हुई ; मंदिर के बगल में एक पानी का नल था, पहले मैंने सिर्फ दांतमंजन किया फिर स्नान करने का विकल्प चुना, धोती और कुर्ते में अपना वस्त्र बदल लिया l दक्षिण भारत के मंदिरों में पैंट की अनुमति नहीं थी , मुझे यह प्रथा बहुत पसंद है और मैं धर्मस्थान की सौम्याता बनाए रखने की सराहना करता हूं।
दुकानदार से पूछा कि मंदिर कब खुलेगा तो उसने कहा 4 बजे।
और कुछ ही समय के बाद मन्दिर का विशाल द्वार खुला और पांच पुरोहित मन्दिर परिसर से बाहर आय, मैं प्रवेश करने के लिए तैयार हुआ ; परन्तु पांच पुरोहितों मन्दिर आये थे, उनहोंने मुझे रोका औऱ विभिन्न वस्तुओं व विधि से मेरा स्वागत किया, मेरे माथे पर टीका लगाया, माला पहनाई, आरती की, मुझे चांवर द्वारा पंखा किया, शंख बजाया और मुझे ढोलक बजाते व सहनाई वाद्य बजाते बजाते सीधे आंतरिक गर्भ कक्ष तक लें गये, जहाँ देवता की सौम्य एवं बहुत बड़ी मूर्ति स्तापित था. मैं पूर्ण रुप से स्तम्भहित एवं अति व्याकुलता अनुभव कर रहा था ; एवं वे मुझे इशारो से शांत एवं छुप रहने को कहाँ l यह कटु सत्य है, मैं भय भी अनुभव कर रहा था, कियूं की मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था, यह क्या हो रहा था l
फिर विभिन्न तरह की पूजा विधि प्रारम्भ हुई , पहले सब कुछ देवता को समर्पित हो रहा था , फिर मुझे l आरती की, बड़े-बड़े सोने-चांदी के प्याले मेरे सिर पर रखा , बहुत ही लम्बी पूजा विधि प्रथाक्रिया चलता रहा, मेरी भीतरी स्तिथी असमंजस पूर्ण थी, मैं पर्तक्ष में कांप रहा था, भयभीत था, कियूं की मेरी बुद्धि में कोई सनतुलित भावना नहीं आ रहा था कि यह क्या हो रहा है, क्या मेरा अंतिम समय आ गया है!, जल्द ही मेरी बली होगी !! परन्तु मैं स्वं को ऐसे रखने की चेष्ठा कर रहा था, जैसे सब ठीक है।
कुछ समय बाद सब विधियां समाप्त हो गयी, मेरे माथे को कपूर की भस्म के साथ अच्छी तरह से लेपा गया, प्रसाद दिया और फिर बडे सम्मान सहित पांचो पुरोहित, जिस प्रकार पूर्ण व्यवस्था से मन्दिर में प्रवेश किया था उसी प्रकार विधिवध बाहर छोड़ने आय l मैंने दीर्घ निश्वास ली, एवं अब मेरा मन शांत हुआ, मेरी सारी ईश भक्ति अब तक भय के मारे हवा हो चुकी थी l
मैं शांत हो गया, औऱ पांचो पुरोहित को प्रणाम करने बढ़ा, वें तुरंत पिछै हो गये एवं इशारो से प्रणाम न करने का समझा दिया ; औऱ इस के तुरंत बाद पांचो ने मुझे शाष्टांग प्रणाम कर, ततपश्चात् मन्दिर परिसर में चले गये l
द्वार फिर बंद हो गया.
तब तक सुबह के करीब साढ़े पांच बज चुके थे, काफी लोग जमा हो चुके थे। एवं वें मेरे एवं पुरोहितों की, आपस के वार्ता को सम्पूर्ण शांत एवं सौम्यता से दृष्टिगोचर कर रहें थे l
जैसे ही मैंने पहला कदम चलने के लिये उठाया
लोग मेरी ओर बढ़े, और मेरे चरणों को अति भक्ति भाव से से स्पर्श कर प्रणाम करने लगे l
मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था, ये क्या हो रहा है l
आदर एवं विनय पूर्वक मैंने हाथ जोड़कर उनसे अनुरोध किया कि कृपया मुझे प्रणाम न करें।
मैं पूरी तरह से अपनी अंत:कर्ण से दुविधा बोध कर रहा था कि आखिर क्या हो रहा था और क्यों। इस भीड़ के मेरे प्रति अथहा भक्ति एवं श्रद्धा ने मुझे वचलित कर झीझोर दिया। इस शहर में मैं एक अजनबी और अस्वाभाविकता से लोग मुझे सर्वोच्च श्रद्धा एवं भक्ति प्रदान कर रहे हैं! लेकिन क्यों ? मैंने कुछ को रोकने की कोशिश की, लेकिन किसी ने मेरी बात नहीं मानी, वह बस प्रणाम औऱ मेरा आशीष आशीर्वाद चाहते थे !!
इतने में एक सज्जन मुझे प्रणम करने आय , सौभाग्य से अंग्रेजी बोल सकते थे, पहले प्रणाम किया फिर कहा, सर, कृपया आराम से खड़े रहें, लोगों को पुण्य अर्जित करने का अवसर दें । मैं मूक स्थमभित हो उसे देखा औऱ मैंने उसे पकड़ लिया; उसने मुझे उसे पकड़ने दिया और मैंने पूछा: यह क्या औऱ कियूं हो रहा है?
और फिर उस ने बराया : माना जाता है कि इस मंदिर के देवता रात में बाहर जाते हैं शहर की स्तिथी
देखने के लिए, इस शहर के लोगों का कल्याण एवं जीवन के सुखी जीवन की स्थापन हेतु और सुबह जल्दी वापस आ जाते है और जब पुजारी द्वार खोलते है, तो द्वार पर पहला अनजान, मानवशरीर में भगवान के रूप में लिया जाता है, और वे स्वागत करते हैं और भगवान रुप से सम्मान प्रदान करते हैं!
जब आप बाहर आए तो लोग आपके चरण स्पर्श सरूप करते है कियूं की परमेश्वर ने अपके रुप (शरीर ) को स्वं से ईशाँग रुप से परिवर्तित कर दीया है।
मैंने उससे पूछा कि क्या वह सच में ऐसा मानता है। उनका उत्तर बहुत ही क्षुम था, परन्तु बहुत ही गूढ़ था : “क्या मैंने आपके चरण स्पर्श नहीं किया !” मुझे नहीं पता इसे क्या कहा जाय ! परन्तु यह सत्य है कि
ईश्वर और मनुष्य, मनुष्य और ईश्वर ब्रह्मः एवं ब्रह्माण्ड का एक अपूर्व संबंध है l
उसके इस वाक्य ने मुझे, कन्याकुनारी के विवेकानंद स्मारक शिला के जेष्ट स्वामी जी के शब्द, मेरे प्रति फिर से उत्तेजित एवं गूढ़ता से सोचने से बाध्य किया,
“आप धन्य, भाग्यशाली एवं वरदानित मानव हैं ”
पता नहीं, क्या सत्य हैं ; परन्तु मेरा जीवन अत्यंत विषमयता से भर पुर हैं l ??
कई सालों बाद, जब मैं ईश बोध के संज्ञा से सज्ञान हुआ, आप सब को समर्पित हैं ??
” ईश बोध एक सिधे अंतकरण संचित अनुभव है , जो किसी भी आध्यत्मिक एवं आपवादिक तर्क परिभाषा से वंचित है |
यह इन्द्रियबोध , ज्ञान या मन-क्षेप (मनौद्वेग) नहीं है |
यह आलोकिक अनुभूती है | यह अनुभती प्राप्त एंव अनुभती समर्पित मानव को ईश स्वं का निराकार एवं अंतहीन ब्रह्म के असत्वित से आलोकिक करते हैं|”??
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