मैं एक नदी हूँ
मैं एक नदी हूँ
हाँ मैं वही नदी हूँ
जिसे तुम माँ कहते हो
जिसकी तुम पूजा करते हो।
जिसका अपार वर्णन वेदों पुराणों में है।
मैं मानव सभ्यता की जननी हूं और जीवन का सार हूँ
तुम मुझे पवित्र मानते हो पर अपने सारे पाप मुझे दे जाते हो।
पर कभी तुमने यह सोचा है कि तुम्हारा पाप धोते-धोते अब मैं भी थक गई हूँ। तुमने कभी मेरी पवित्रता का ध्यान रखा?
कभी मेरे किनारे वृक्षो से भरे रहते थे। तुमने सारे वृक्ष काट दिए। यह वृक्ष मेरे वस्त्र है। तुमने अपनी इस माँ को निर्वस्त्र कर दिया।
तुमने मेरी रेत से आलीशान घर बना लिए बड़े-बड़े कारखाने लगा लिए और उसका कचरा वापस मुझ में ही डाल दिया? मेरे निर्मल जल को विषैला कर दिया।
बिजली पानी अनाज घर तुम सभी मुझे पाते हो पर तुमने मुझको क्या दिया?
-विष्णु प्रसाद ‘पाँचोटिया’