मैं आग बो रही हूँ
कितनी पुरानी दविश
कितना पुराना है घाव उनका
मैंने तो वो जिया ही नही
जिसे भोगा है उन्होंने
कभी किसी ने मुझे
टूटे हुए बर्तन में
जूठा खाना फेंक के नही दिया
टूटे कप में चाय पीने को नही दिया
देता तो फेंक मारती उसके मुँह पे
मैंने कभी फेका पैसा नही उठाया
कभी देहारी के लिए किसी मालिक ने
मेरे अंतःवस्त्र में हाँथ नही डाला
डालता तो काट देती
मगर उनके शरीर पे वस्त्र होते हुए भी
निर्वस्त्र देखेजाने को उन्होंने
सदियों से सदियों तक जिया
ऐसे जिया मानों किस्मत हो
मानों देवताओं ने आदेश दिया हो
मैं कभी किसी के पैरों में उकुरु नहीं बैठी
पर वो बैठे, वो सदियों वहीं बैठे रहे
अब वो उठान चाहते हैं,
उठ के खड़ा होना चाहते हैं
अपने खुद के पैरों पे, रीढ़ की हड्डी के साथ
हमारी बगल में आ बैठना चाहते हैं
अब वो खुल के उड़ना चाहते हैं
मैं तो बस उन हाथों को
अपने हाँथ में ले
उनको अपने साथ में ले
उनके दर्द की आवाज होना चाहती हूँ
उनके दर्द को शब्दों में पिरोना चाहती हूँ
मगर कुछ लोग कहते हैं
मैं आग बो रही हूँ, मैं खाब बो रही हूँ
मैं सैलाब न्योत रही हूँ
क्या मैं खराब हो रही हूँ…?
…सिद्धार्थ