मैं आऊँगा पलटकर
ओढ़कर के कोहरे की सर्द चादर
कौन है जो जा रहा
खुद में सिमट कर
काँपती उस आत्मा का तन-बदन
कह रहा मत देख
आऊँगा पलट कर
जानी-पहचानी सी उस आवाज में
वेदना-संवेदना का
घोल था
हाड़ पर सच को लपेटे जा रहा
बस यही था पास
जो अनमोल था
कोयले सा तन अँधेरी रात में
हो रहा अदृश्य
मेरी दृष्टि से
नग्न तन कब तक सहेगा ठण्ड भीषण
बस यही मैं पूछता हूँ
सृष्टि से
गुदगुदा बिस्तर हुआ कण्टक सरीखा
नींद आँखों से उतरकर
खो गयी
वो गयी फुटपाथ पर लेटे हुए
उस शख्स की आँखों में
जाकर सो गयी
जागते बीती निशा जब भोर में
भीड़ देखी रेंगती
फुटपाथ पर
खोजते घूमी निगाहें फिर चतुर्दिक
आ के ठहरी शांत
संगम घाट पर
पास मैं श्मशान के जड़वत् हुआ
भागी हवाएँ जब कफ़न
मुख से उलट कर
चीखा मन ये तो वही है हाँ वही
कह रहा था जो
मैं आऊँगा पलटकर